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अनुलोम विलोम प्राणायाम की विधि एवं लाभ

अनुलोम का अर्थ होता है सीधा और विलोम का अर्थ है उल्टा। यहां पर सीधा का अर्थ है नासिका या नाक का दाहिना छिद्र और उल्टा का अर्थ है-नाक का बायां छिद्र। अर्थात  अनुलोम-विलोम प्राणायाम  में नाक के दाएं छिद्र से सांस खींचते हैं, तो बायीं नाक के छिद्र से सांस बाहर निकालते है। इसी तरह यदि नाक के बाएं छिद्र से सांस खींचते है, तो नाक के दाहिने छिद्र से सांस को बाहर निकालते है। अनुलोम-विलोम प्राणायाम को कुछ योगीगण 'नाड़ी शोधक प्राणायाम' भी कहते है। उनके अनुसार इसके नियमित अभ्यास से शरीर की समस्त नाड़ियों का शोधन होता है यानी वे स्वच्छ व निरोग बनी रहती है। इस प्राणायाम के अभ्यासी को वृद्धावस्था में भी गठिया, जोड़ों का दर्द व सूजन आदि शिकायतें नहीं होतीं। विधि:– अपनी सुविधानुसार पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन अथवा सुखासन में बैठ जाएं। दाहिने हाथ के अंगूठे से नासिका के दाएं छिद्र को बंद कर लें और नासिका के बाएं छिद्र से 4 तक की गिनती में सांस को भरे और फिर बायीं नासिका को अंगूठे के बगल वाली दो अंगुलियों से बंद कर दें। तत्पश्चात दाहिनी नासिका से अंगूठे को हटा दें और दायीं नासिका से...

पेट न साफ होना, अपच, एसिडिटी आदि समस्याओं का घरेलू उपचार

हर हर महादेव मित्रों, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले बंधुओ के लिए यह दूसरा लेख है, पहले लेख में वीर्य रक्षा के विषय में महत्वपूर्ण बाते बताई गई जिसका लिंक नीचे मिल जायेगा। बहुत से मित्रों को पेट से संबंधी समस्या रहती है। पेट न साफ होना, भूख ना लगना, गैस बनने जैसी समस्याएं हो सकती हैं, सर्वप्रथम तो यह समझे कि इसका कारण ब्रह्मचर्य नही हैं।  इसके उपाय में, यदि आपका पेट साफ नहीं होता तो सुबह उठते ही कम से कम दो गिलास पानी छोटे छोटे घूंट करके पिएं, पश्चात नित्य कर्म को जाएं। पेट अच्छे से साफ होगा।  पेट से जुड़ी समस्याओं का मुख्यकारण है, भोजन करते समय और भोजन के तुरन्त बाद पानी पीना, भोजन को पचाने का काम करती है जठर अग्नि, जैसा कि हम सब जानते हैं पानी और अग्नि परस्पर बैरी है, भोजन के तुरन्त बाद पानी पीने से जठराग्नि मंद पड़ जाती है, जिससे भोजन पचन अधिक समय लगता है, कभी भोजन पचने के बजाय सड़ जाता है, भोजन सड़ने से पेट में गैस(एसिडिटी), खट्टी डकार जैसी समस्या बन जाती है।  इन समस्याओं से बचने के लिए भोजन के आधे घण्टे(30मिनट) बाद पानी पिए।  भोजन के समय जमीन पर पालथी मारकर बैठ कर...

टॉन्सिलाइटिस का घरेलू उपचार

आप किसी भी चिकित्सक के पास जाओगे टॉन्सिलाइटिस के इलाज के लिए तो वह तुरन्त ऑपरेशन बतायेगा। ऐसी स्थिति से बचने के लिए आयुर्वेद अपनाएं। टॉन्सिलाइटिस के लक्षण  –लाल और सूजे हुए टॉन्सिल्स   –टॉन्सिल पर सफेद या पीले रंग का आवरण या धब्बे   –गले में खराश –निगलने में परेशानी या दर्द   –बुखार –गर्दन में लिम्फ नोड्स का बढ़ना  –खरखरी, धीमी या भारी आवाज़  –सांसों की बदबू –पेट में दर्द(खासकर छोटे बच्चों में) –गर्दन में अकड़न –सिरदर्द उपचार :– यदि पुराना टांसिलाइटिस हो तो आधा चम्मच हल्दी मुंह में जितना अन्दर तक डाल सके डाल लें लार के साथ धीरे धीरे अन्दर जायेगा एक घंटे तक अपनी नही पीना है। बच्चों को यदि खाली हल्दी निगलने में समस्या हो तो उसमे थोड़ी मिश्री मिला सकते हैं। सप्ताह में तीन बार लें। यदि आपको सप्ताह या माह भर से टॉन्सिलाइटिस की समस्या है तो आप दूध या पानी के साथ हल्दी ले सकते हैं। आधा चम्मच हल्दी दूध या पानी (सुविधानुसार) में डाल कर उबाल लें। और चाय की तरह छोटे छोटे घूंट पिएं। आपके टॉन्सिलाइटिस में शीघ्र लाभ होगा। धन्यवाद।

सर्दी, जुकाम, खांसी के सर्वश्रेष्ठ घरेलू उपचार।

अदरक :– १– आधा चम्मच अदरक का रस निकाल कर हल्का गरम कर लें, उसे आधे चम्मच शहद में मिलाकर चाट लें। ऐसा सुबह, दोपहर और शाम तीन बार, तीन दिन तक लें। २– आधा चम्मच अदरक का रस, आधा चम्मच तुलसी का रस हल्का गरम करके लें, सुबह, दोपहर, शाम तीन दिन तक। हल्दी :– सर्दी, खांसी, जुकाम के लिए हल्दी भी बहुत उपयोगी है। १– दूध के साथ हल्दी लेना पुरातन तरीका है, एक गिलास दूध में एक चौथाई चम्मच हल्दी डाल कर उबाल लें, चाय की तरह छोटे छोटे घूंट शिप शिप करके सुबह और शाम पिएं।  २– दूध के अभाव(कमी) में पानी के साथ भी हल्दी ले सकते हैं। एक गिलास पानी में एक चौथाई चम्मच हल्दी डाल कर अच्छे उबाल लें, और चाय की तरह छोटे छोटे घूंट शिप करके सुबह शाम दोपहर तीन बार पिएं। कम से कम तीन दिन तक यह सबसे सरल घरेलू आयुर्वेदिक उपचार है। कोई साइड इफेक्ट नहीं। धन्यवाद।

ब्रह्मचर्य के प्रारम्भ में ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बाते क्या करें क्या न करें।

हर हर महादेव मित्रों, ब्रह्मचर्य के विषय में बहुत सी भ्रांतिया हैं, कुछ के मत स्पष्ट भी हैं,सही अर्थों में ब्रह्मचर्य आत्म संयम का दूसरा नाम है, यदि कोई सर्वसाधारण जीवन व्यतीत करना चाहता है तो यह उसके लिए नही है। यह उनके लिए जो जीवन के उच्चतम आयाम तक पहुंचना चाहते हैं। पुरातन समय में ब्रह्मचर्य हमारे संस्कार में होता था। यही कारण है, हमारे पूर्वज अति मनीषी(विद्वान) एवम शक्तिशाली हुआ करते थे, किन्तु वर्तमान में आधुनिकता की कुल्हाड़ी ने इसे काट दिया है, विभिन्न माध्यमों से हम सब के समक्ष नग्नता परोसा जा रहा है, विडंबना यह है कि हम सब इसे सहर्ष स्वीकार कर रहे हैं, जिससे हमारा पौरुष धीरे धीरे क्षीण हो रहा है, आप में जो अपना सर्वश्रेष्ठ देने का सामर्थ्य है,वह घटता चला जा रहा है। इसलिए अपने उत्थान के लिए, राष्ट्र के उत्थान के लिए युवाओं को, आने वाली पीढ़ी को ब्रह्मचर्य के लिए जागरूक करना चाहिए। इस लेख का उद्देश्य भी यही है। अब हम बात करते हैं ब्रह्मचर्य में आने वाली बाधाओं के विषय में वीर्यपात:– ब्रह्मचर्य में वीर्यपात साधक के लिए सबसे बड़ी बाधा है, वीर्य ब्रह्मचर्य का मूल है, वीर्यरक्षण के ...

अश्विनी मुद्रा के लाभ एवं विधि।

जैसे अश्व (घोड़ा) लीध करने के बाद अपने गुदाद्वार को बार-बार सिकोड़ता ढीला करता है, उसी प्रकार गुदाद्वार को सिकोड़ना और फैलाने की क्रिया को ही अश्विनी मुद्रा कहते हैं। घोड़े में इतनी शक्ति और फुर्ती का रहस्य यही मुद्रा है। जैसे अश्व (घोड़ा ) लीध करने के बाद अपने गुदाद्वार को बार-बार सिकोड़ता ढीला करता है, उसी प्रकार गुदाद्वार को सिकोड़ना और फैलाने की क्रिया को ही  अश्विनी मुद्रा  कहते हैं। घोड़े में इतनी शक्ति और फुर्ती का रहस्य यही मुद्रा है। इसलिए इंजन की ताकत अश्व शक्ति (हॉर्स पावर) से मापी जाती है। यह ऐंटी ग्रेविटी अभ्यास है। इससे शरीर को चलाने वाली ऊर्जा बढ़ती है। सभी अंगों को बल मिलता है, शरीर की ताकत बढ़ती है, नपुंसकता दूर होकर पौरुष शक्ति बढ़ने लगती है। हृदय को बल देने वाली यह क्रिया हर्निया, मूत्र दोष, गुदा सम्बन्धी रोग, बवासीर, कब्ज व स्त्री रोगों में बड़ी उपयोगी है। इसके अभ्यास से मूलाधार चक्र में स्थित कुण्डलिनी शक्ति जागने लगती और हमें लम्बे समय तक युवा बनाए रखती है। विधि : आराम से किसी ध्यानात्मक आसन में आंख बंदकर बैठ जाएं, दोनों हाथों को घुटनों पर ज्ञान मुद्रा में रख ले...

अष्टदशम अध्याय–मोक्षसन्यासयोग

अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग त्याग का विषय अर्जुन उवाच सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्‌ । त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ৷৷18.1৷৷ arjuna uvāca saṅnyāsasya mahābāhō tattvamicchāmi vēditum. tyāgasya ca hṛṣīkēśa pṛthakkēśiniṣūdana৷৷18.1৷৷ भावार्थ : अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्‌! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्‌-पृथक्‌ जानना चाहता हूँ ৷৷18.1॥ श्रीभगवानुवाच काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः । सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ৷৷18.1৷৷ śrī bhagavānuvāca kāmyānāṅ karmaṇāṅ nyāsaṅ saṅnyāsaṅ kavayō viduḥ. sarvakarmaphalatyāgaṅ prāhustyāgaṅ vicakṣaṇāḥ৷৷18.2৷৷ भावार्थ : श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के (स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए जो यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि कर्म किए जाते हैं, उनका नाम काम्यकर्म है।) त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को (ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा...

सप्तदशम अध्याय–श्रद्धात्रयविभागयोग

अथ सप्तदशोऽध्यायः- श्रद्धात्रयविभागयोग श्रद्धा का और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का विषय अर्जुन उवाच ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः৷৷17.1৷৷ arjuna uvāca yē śāstravidhimutsṛjya yajantē śraddhayā.nvitāḥ. tēṣāṅ niṣṭhā tu kā kṛṣṇa sattvamāhō rajastamaḥ৷৷17.1৷৷ भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्र विधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादिका पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी किंवा तामसी? ৷৷17.1॥ श्रीभगवानुवाच त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु৷৷17.2৷৷ śrī bhagavānuvāca trividhā bhavati śraddhā dēhināṅ sā svabhāvajā. sāttvikī rājasī caiva tāmasī cēti tāṅ śrṛṇu৷৷17.2৷৷ भावार्थ : श्री भगवान्‌ बोले- मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा (अनन्त जन्मों में किए हुए कर्मों के सञ्चित संस्कार से उत्पन्न हुई श्रद्धा ''स्वभावजा'' श्रद्धा कही जाती है।) सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनो...

षोडश अध्याय–दैवासुर सम्पद्विभागयोग

अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग फलसहित दैवी और आसुरी संपदा का कथन श्रीभगवानुवाच अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्‌॥16.1 ॥ śrī bhagavānuvāca abhayaṅ sattvasaṅśuddhiḥ jñānayōgavyavasthitiḥ. dānaṅ damaśca yajñaśca svādhyāyastapa ārjavam৷৷16.1৷৷ भावार्थ : श्री भगवान बोले- भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिए ध्यान योग में निरन्तर दृढ़ स्थिति (परमात्मा के स्वरूप को तत्त्व से जानने के लिए सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में एकी भाव से ध्यान की निरन्तर गाढ़ स्थिति का ही नाम 'ज्ञानयोगव्यवस्थिति' समझना चाहिए) और सात्त्विक दान (गीता अध्याय 17 श्लोक 20 में जिसका विस्तार किया है), इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान्‌ के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता॥16.1॥ अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्‌। दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्‌॥...

पंचदशः अध्याय–पुरुषोत्तमयोग

अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग संसाररूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति का उपाय श्रीभगवानुवाच ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ৷৷15.1৷৷ śrī bhagavānuvāca ūrdhvamūlamadhaḥśākhamaśvatthaṅ prāhuravyayam. chandāṅsi yasya parṇāni yastaṅ vēda sa vēdavit৷৷15.1৷৷ भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! इस संसार को अविनाशी वृक्ष कहा गया है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा इस वृक्ष के पत्ते वैदिक स्तोत्र है, जो इस अविनाशी वृक्ष को जानता है वही वेदों का जानकार है। ৷৷15.1৷৷ अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ৷৷15.2৷৷ adhaścōrdhvaṅ prasṛtāstasya śākhā guṇapravṛddhā viṣayapravālāḥ. adhaśca mūlānyanusantatāni karmānubandhīni manuṣyalōkē৷৷15.2৷৷ भावार्थ : इस संसार रूपी वृक्ष की समस्त योनियाँ रूपी शाखाएँ नीचे और ऊपर सभी ओर फ़ैली हुई हैं, इस वृक्ष की शाखाएँ प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा विकसित होती है, इस वृक्ष की इन्द्रिय-विषय रूपी कोंपलें है, इस व...